Thursday, 12 January 2012

लव-कुश की जन्म भूमि उपेक्षा का शिकार

लव-कुश की जन्म भूमि उपेक्षा का शिकार
धार्मिक स्थल तुरतुरिया



Webdunia

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रामायण कालीन महर्षि वाल्मिकी की महान धरा एवं माता सीता के पुत्र लव-कुश का जन्मस्थल कहे जाने वाला धार्मिक स्थल तुरतुरिया आज बदहाली का दंश झेलने के लिए विवश है। इस तीर्थस्थल को विकसित करने के लिए शासन द्वारा किसी तरह के प्रयास नहीं किए जा रहे। गौरतलब है कि यहाँ हर साल छेरछेरा पुन्नी के पावन पर्व पर तीन दिवसीय भव्य मेला का आयोजन किया जाता है जिसमें हजारों श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं।

सनातन धर्म से जुड़ी धरती : सनातन धर्म की आस्था इस धरती से जुड़ी है रामायण कालीन महर्षि वाल्मिकी आश्रम एवं वैदेही विहार के रूप में माता सीता तथा लव-कुश की यादों को सहेजे यह धरती शांत मन को प्रफुल्लित करने वाली है। यहां शक्तिस्वरूपा मां काली की प्रतिमा सघन वृक्षों एवं पहाड़ों में विराजित है, जहां क्षेत्रवासी अपनी मुरादें पूरी करने प्रति वर्ष छेरछेरा पुन्नी मेले में आते हैं और इन्हें तुरतुरिया माता के नाम से पुकारते हैं।

जनपद पंचायत के अधीन देख-रेख : तुरतुरिया मेला की व्यवस्था स्थानीय जनपद पंचायत के अधीन है। बताया जाता है कि मेला के तीन दिन लाखों श्रद्घालुओं का रेलमपेल लगा रहता है लेकिन अभी वर्तमान समय में इस पावन भूमि के प्रति लोगों की आस्था दिन-प्रतिदिन बढ़ने के साथ-साथ बारहों महीने लोगों का आवागमन लगा रहता है।

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सुविधाओं का अभाव : स्थानीय लोगो का कहना है कि मेला परिसर में जनपद पंचायत द्वारा व्यापारियों को सुविधा देने के एवज में राशि ली जाती है लेकिन मेले में न तो पेयजल की व्यवस्था होती है और न ही सफाई की। यहां आए श्रद्धालु डिस्पोजल, पत्तल, प्लास्टिक की वस्तुओं को जहां-तहां फेंक कर चले जाते हैं जिसके चलते यहां गंदगी का आलम सा बना रहता है। जनपद इसकी सफाई की सुध नहीं लेता।

कसडोल के जनपद पंचायत सीईओ प्रताप सिंह ठाकुर के अनुसार तुरतुरिया में तीन दिन का मेला लगता है जिसमें मेला समितियों के द्वारा व्यवस्था की जाती है लेकिन अब वर्षभर श्रद्घालु आते रहते हैं। इसके चलते जल्द ही श्रद्घालुओं को समुचित व्यवस्था प्रदान करने के लिए आगामी मेला समिति की बैठक में प्रस्ताव रखा जाएगा।

पुराना रास्ता ही था सुरक्षित : ग्राम ठाकुर दिया से तुरतुरिया पहुंचने के 4 किमी. मार्ग पर जान-लेवा घाटियों से होकर गुजरना पड़ता है। लोगों का कहना है कि तुरतुरिया जाने के लिए पुराना मार्ग ही सही था, लेकिन स्टाप डेम बनाने के कारण पुराने रास्ते को बंद कर दिया गया है। जिसके चलते श्रद्घालु इस जानलेवा ढलान वाली घाटी से अंजान रहते हैं जिसके कारण हमेशा दुर्घटना होने की आशंका बनी रहती है। स्थानीय लोगों की मांग है कि शासन यहां सुविधाएं बढ़ाए और उक्त घाटी की ढलान को कम करें ताकि गंभीर दुर्घटनाओं को टाला जा सके।

सोजन्य  से  वेबदुनिया   



छत्तीसगढ़ में रामायणकालीन संस्कृति की झलक आज भी देखने मिलती हैं। जिससे यह साबित तो होता है कि भगवान श्रीराम के अलावा माता सीता और लव -कुश का संबंध भी इसी प्रदेश से था। घने जंगलों के बीच स्थित तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम इसी बात की याद दिलाता है कि रामायण काल में छत्तीसगढ़ का कितना महत्व रहा होगा। प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार श्रेतायुग में यहां महर्षि वाल्मीकी का आश्रम था और यहीं पर उन्होंने सीताजी को रामचंद्र जी द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था।

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रायपुर -बलौदाबाजार मार्ग पर ठाकुर दिया नाम स्थान से सात किलोमीटर की दूरी पर घने जंगल और पहाड़ों पर स्थित है तुरतुरिया। यह रायपुर से 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां जाने का रास्ता शायद पहले आसान नहीं रहा होगा, क्योंकि सुरम्य और घनी पहाड़ियों के बीच स्थित इस स्थान में जगह-जगह पहाड़ी कछार, छोटे-छोटे नाले और टीलें हैं । इन्हीं पहाड़ियों के बीच बहती है बालमदेही नदी जिसका पाट तुरतुरिया के पास काफी चौड़ा हो गया है। पहाड़ी नदी होने के कारण वर्षा तु में इसका तेज प्रवाह तुरतुरिया तक पहुंचने के रास्तों को और कठिन बना देता है। यह नदी आगे चलकर पैरागुड़ा के पास महानदी में मिल जाती है। 
छत्तीसगढ़ रा?य बनने के बाद और भाजपा के शासन काल में जब से श्री बृजमोहन अग्रवाल ने संस्कृति और पर्यटन मंत्री का पद संभाला है, इस रा?य के ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों से संबंधिक क्षेत्रों के जैसे दिन ही फिर गए हैं। इन क्षेत्रों का लगातार विकास कर इन्हें पर्यटन क्षेत्रों के रूप में उभारा जा रहा है। तुरतुरिया को ही ले लीजिए। जहां पहुंचना पहले आसान नहीं था, लेकिन अब इसके रास्तों को आसान बनाया जा रहा है। छोटे-छोटे मोड़दार नालों पर छोटी-छोटी पुलियां बननी शुरू हो गई हैं। मोटल का निर्माण प्रगति पर है यानी अब वहां पर्यटकों का पहुंचना और ठहरना आसान तथा आरामदायक हो गया है। तुरतुरिया तीन मुख्य रास्तों से जाया जा सकता है, एक सीधे रायपुर से बारनवापारा जंगल होते हुए, सिरपुर से या फिर बलौदाबाजार से।
तुरतुरिया की वन विभाग की चौकी पार करने के बाद दो सौ कदम के फासले पर ही स्थित है महर्षि वाल्मीकि का आश्रम । सामने ही एक पहाड़ी पर वैदेही कुटीर नजर आती है। वहां तक पहुंचने के लिए पहाड़ियों को काटकर सीढ़ियां बना दी गई हैं। सीढ़ियों के किनारे-किनारे जंगली मोगरे के छोटे-छोटे पौधे बिखरे पड़े हैं। गर्मियों और बारिश में जब ये फूल खिलते हैं, तो वातावरण और खुशनुमा हो जाता है। ऊपर पहुंचने पर एक पक्की कुटीर नजर आता है। यदि आपकी किस्मत अच्छी है, तो आपको ऊपर पहुंचने पर हिरणों का झुंड भी विचरण करता नजर आ सकता है। हालांकि पर्यटकों की आहट से चौकन्ना होकर ये हिरण कुंलाचे भरते हुए पल भर में पेड़ों के झुुरमुट में गायब भी हो जाते हैं। रात में और भी जानवर यहां पर देखे जा सकते हैं। इसी पहाड़ी से लगी एक अन्य पहाड़ी है, जहां पर महर्षि वाल्मीकी का आश्रम स्थित है।



प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार श्रेतायुग में यहां महर्षि बाल्मीकी का आश्रम था और यहीं पर उन्होंने सीताजी को रामचंद्र जी द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था। यहीं पर सीताजी के दोनोें पुत्र लव और कुश ने जन्म लिया था। वैदेही कुटीर के नीचे ठीक बाएं एक संकरा रास्ता पैदल जाता है। सामने ही कलात्मक खंभे दिखाई देते हैं, जो विखंडित हो चुके हैं। पहाड़ी पर ही कुछ पक्के मंदिर अब बन गए हैं, जिन पर निर्माण कार्य में सहयोग करने वाले लोगों के नाम भी अंकित हैं। 
इसी क्षेत्र में बौद्ध भग्नावेश भी मिलते हैं, जो 8 वीं शताब्दी के हैं। यहीं पर कई उत्कृष्ट कलात्मक खंबे भी नजर आते हैं, जो किसी स्तूप के अंग हैं। यही पर माता सीता और लव- कुश की एक प्रतिमा भी नजर आती है, जो 13-14 वीं शताब्दी की बताई जाती है। पाषाण निर्मित ये मूर्तियां कलात्मक तो नहीं कही जा सकती, लेकिन इससे यह बात स्पष्ट होती है कि प्राचीन काल में भी इस जगह को वाल्मिकी के आश्रम के रूप में मान्यता मिली हुई थी। 
इसका तुरतुरिया नाम पड़ने का कारण यह है कि चट्टानों के बीच से जब यह निर्धरिणी का उद्गम एक लंबी संकरी गुफा से होता है। जहां से वह बड़ी दूर तक भूमिगत होकर बही है। इस झरने का नाम ही तुरतुरिया हैं, जिसे सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। घने जंगलों से घिरा है यह क्षेत्र। इस गुफा से उसका जल र्इंटों से निर्मित एक कुंड में एकत्र होता है। कुंड में उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। पहाड़ों के समीप एक छोटा सा जल कुंड बना हुआ है, जिसमें पानी पहाड़ों से आकर गिरता है। बारहों महीने इसकी जलधारा प्रवाहित होती रहती है। गर्मियों में भी ठंडे शीतल जल की धारा धाराप्रवाह प्रवाहित होती रहती है। यहां पर नियुक्त महंत रामकिशोर दास के अनुसार वे पिछले 35 बरसों से इस क्षेत्र में निवास कर रहे हैं। इतने बरसों में उन्होंने कभी इस धारा को सूखते नहीं देखा है। कुंड के निकट दो शूरवीर की मूर्तियां हैं, जिनमें से एक तलवार उठाए हुए है जो उस सिंह को मारने के लिए उद्घत है जो उसकी दाहिनी भुजा को फाड़ रहा है। दूसरी मूर्ति एक जानवर का उसकी पिछली टांगों पर खड़ा होकर उसका गला मरोड़ रहा है। यहां पत्थर के कई स्तंभ यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जिन पर उत्कृष्ट खुदाई का काम किया गया है।
स्त्री और बौद्घ विहार-
यह स्थान कुंड से कुछ दूरी पर नाले के दूसरे किनारे पर पहाड़ पर स्थित ुषियों के कुटियों में जाने के लिए बनाए गए पहाड़ी सीढ़ियों के समीप है। जहां पर अब मात्र जैन एवं बौद्घ भिक्षुणियों की मूर्ति है जो कि उपदेश देने की मुद्रा में दिखाए गए हैं। साथ ही उनकी शिक्षाएं भी यहीं उत्कीर्ण हैं, जो आठवी-नवीं शताब्दी की हंै। इस स्थान की विशेषता है कि यहां पुजारिनें स्त्री ही नियुक्त की जाती थीं, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह बौद्घ भिक्षुणियों का विहार था। भारत में केवल बौद्घ भिक्षुणियों के लिए विहार का निर्माण किया गया था या नहीं यह शोध का विषय है। इन अवशेषों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि इस क्षेत्र पर 8-9 वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रभाव था और यह प्रमुख बौद्ध स्तूप और स्थल रहा होगा। इस क्षेत्र की खुदाई और शोध से कई बातें और सामने आ सकती हैं। 
यहां के कुछ भग्न मंदिरों जिन्हें की अब जिर्णोद्घार किया जा चुका है। बौद्घ मूर्तियां खंडित अवस्था में हंै तथा समीप ही शैव वैष्णव धर्म की कुछ मूर्तियां पाई जाती हैं, जिनमें शिवलिंगों की अधिकता है। इनमें विष्णु और गणेश जी की मूर्तियां हैं। ऐसा जान पड़ता है कि अधिकांश शिवलिंगों का निर्माण बौद्घ विहार के स्तंभों को तोड़कर किया गया है।
इस क्षेत्र का महत्व छेराछेरा के मौके पर और बढ़ जाता है, जब यहां पर मेला भरता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर लव कुश का जन्म हुआ था इसलिए पूष माह में यहां पर तीन दिनों का मेला भरता है। छेरछेरा पर्व छत्तीसगढ़ का पारंपरिक त्यौहार है , जो पूर्णिमा यानी पुन्नी के दिन धान कटाई के बाद मनाया जाता है। इस दिन गांव-गांव में घर - घर जाकर छोटे-छोटे बच्चे गुहार (आवाज) लगाकर कहते हैं- छेरा-छेरा , कोठी के धान ल हेर हेरा। यानी धान का दान देना इस दिन शुभ माना जाता है। इस दिन लगने वाले मेले में आस-पास के हजारों लोग जुटते हैं। तब तक बालमदेही नदी का पाट काफी सिमट जाता है और गांव -गांव से आने वाले लोग नदी के रेतीले तट पर अस्थायी चूल्हे बनाकर अपने खाने-पीने का इंतजाम करते हैं। 
इस समूचे क्षेत्र में एक अच्छी बात यह देखने में आई कि पहाड़ी क्षेत्र होने के बाद भी यहां पर गांव-गांव में रौशनी है। यह कमाल सौर ऊर्जा का है। समूचे क्षेत्र में सौर ऊर्जा से बिजली प्रवाहित होती है। आस-पास के गांवों में भी छोटे-छोटे सौर प्लांट नजर आते हैं, जिनसे पूरे गांव को रौशनी मिलती है। तुरतुरिया में भी रौशनी सौर ऊर्जा से पहुंचाई जा रही है। 
इस क्षेत्र से सबसे समीप का गांव है बफरा, जहां 30 से 40 कच्चे-पक्के मकान बने हुए हैं। यह गांव तुरतुरिया से 10-12 किमी की दूरी पर स्थित है। तुरतुरिया जाने के मार्ग पर पड़ने वाले गांव काफी बिखरे हुए हैं। इसकी वजह शायद इसका पहाड़ी इलाका होना है। 
तुरतुरिया से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मातागढ़। बालमदेही नदी के पश्चिम में स्थित इस स्थान पर देवी मां का एक प्राचीन मंदिर है। जिसकी बड़ी मान्यता है। इस मंदिर में पहुंचकर मन को शांति मिलती है।

4 comments:

  1. पहले सकुचाए और शर्माए फिर बोले


    पहले सकुचाए और शर्माए फिर बोले

    कुशवाहा समाज का परिचय सम्मेलन
    सागर। रवींद्र भवन में आयोजित सम्मेलन में परिचय देती कुशवाहा समाज की युवतियां।

    नगर संवाददाता त्नसागर

    पहले सकुचाए और शर्माए फिर बिंदास होकर बोले, अपने नाम, उम्र और शिक्षा से शुरू हुआ परिचय परिणय की दहलीज तक पहुंचेगा। मौका था युवक-युवती परिचय सम्मेलन का। कुशवाहा महासभा युवा मोर्चा की ओर से रविवार को रवींद्र भवन में हुए संभागीय सम्मेलन में लगभग 500 युवक-युवतियों ने शिरकत की।

    सरस्वती ने की हौसला अफजाई : परिचय सम्मेलन के बाद अब अभिभावक पसंदीदा रिश्ते की तलाश में जुट गए। सम्मेलन था तो संभाग स्तरीय था, लेकिन इसमें मध्यप्रदेश सहित दिल्ली, झारखंड, उत्तरप्रदेश और राजस्थान से भी समाज के लोग आए थे। तहसीली सागर की रहने वाली युवती सरस्वती के हौसले की उपस्थित लोगों ने खूब दाद दी, क्योंकि अन्य युवतियां अपना परिचय देने में संकोच कर रही थीं, लेकिन सरस्वती ने उन युवतियों की हौसला अफजाई की। बाद में आयोजकों ने सरस्वती का विशेष रूप से सम्मान किया। बाकी युवतियों को भी स्मृति चिन्ह भेंट किए गए।

    ये थे अतिथि : कार्यक्रम में मुख्य अतिथि राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष बाबूलाल कुशवाहा एवं विशिष्ट अतिथि कुशवाहा समाज के प्रांतीय अध्यक्ष नारायण सिंह कुशवाहा, जबलपुर विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष प्रभाशंकर कुशवाहा, पूर्व मंत्री विट्ठलभाई पटेल, विधायक शैलेंद्र जैन, छावनी परिषद की उपाध्यक्ष पूनम पटेल, बीडीए के उपाध्यक्ष डालचंद कुशवाहा, बाबूसिंह कुशवाहा, पुष्पा पटेल, नरेश कुशवाहा, जिलाध्यक्ष वीरेंद्र पटेल थे। अतिथियों ने अपने उद्बोधन में इस तरह के सम्मेलन को समाजों के लिए आवश्यक बताया। संचालन युवा मोर्चा के संभागीय अध्यक्ष अर्जुन पटेल, नीरज कुशवाहा ने किया। आभार कुशवाहा महासभा के जिलाध्यक्ष पूरनलाल कुशवाहा ने माना।

    2003-04 में हुई थी सम्मेलन की शुरुआत: सागर में कुशवाहा समाज के परिचय सम्मेलन की शुरुआत 2003-04 में हुई थी, तभी से हर साल इसका आयोजन किया जा रहा है। शुरुआती दौर में सम्मेलन के प्रति समाज के लोगों का झुकाव कम था, लेकिन इस बार के सम्मेलन में जुटी भीड़ ने सभी रिकार्डतोड़ दिए। आयोजकों के मुताबिक सम्मेलन में करीब 7 हजार लोग शामिल हुए, जबकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।

    समाज की पृष्ठभूमि

    कुशवाहा समाज के लोग खुद को कुश का वंशज मानते हैं। ये लोग मूलत:: गुजरात के कच्छ क्षेत्र के रहने वाले हैं। बाद में यहां से निकलकर इधर-उधर बस गए।

    - जिले में आबादी : डेढ़ से दो लाख, - मुख्य व्यवसाय : कृषि

    - साक्षरता : लगभग 80 फीसदी, - इंजीनियर : तकरीबन 150

    - डॉक्टर : करीब 100

    ये रहे मौजूद

    सम्मेलन में राजकुमार पटेल, वीरेंद्र पटेल, नीरज पटेल, मथुराप्रसाद पटेल, केसी पटेल, ज्ञान सिंह पटेल, पवन पटेल, रघुवीर सिंह कुशवाहा, श्यामलाल पटेल, राजेश पटेल, मुकेश पटेल, डॉ. एनपी पटेल, पूरन पटेल, राहुल कुशवाहा, संतोष पटेल सहित राष्ट्रीय व प्रादेशिक पदाधिकारी उपस्थित थे।

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  2. hi can i know whare is the turturiya

    vs kushwaha

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  3. my mail id is vishalsingh912@rediffmail.com

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